मैं, तुम और ख़्वाहिशें

ऋषिकेश
दीप्ति मिश्रा, युवा पत्रकार

अच्छा सुनो! अपने शहर से दूर नेचर के थोड़े से करीब बैठकर ऑफिस का काम करने का बहुत मन था। इसलिए लैपटॉप उठाकर ऋषिकेश में भीड़भाड़ वाली जगह से दूर तपोवन को अपना अस्थायी ठिकाना बना लिया। यहां शांति, खूबसूरती है, बस बाजार से थोड़ी दूर हूँ। सुबह से ऑफिस के काम में लगी थी। अभी मन किया खुले आसमान से बातें करने का, आसपास की शांति को खुद में उतारने का, दूर पहाड़ पर टिमटिमाती लाइटों से आँख मिचौली खेलने का, ठंडी हवा की छुअन को गालों पर महसूस करने का तो कमरे से बाहर बालकनी में आ खड़ी हुई। खुला आसमान, मुझसे लिपटी ये ठंडी हवा, शोरगुल से दूर थोड़ी शांति और दूर कहीं टिमटिमाती लाइटें सब कितना सुकूनदेह है। टिमटिमाती छोटी-छोटी लाइटें जैसे मुस्कुरा रहीं हो, इन्हें देखकर लग रहा कि अगर अभी तेज से हंस पड़ेगी, तो पूरा आसमान रोशनी से भर जाएगा। 

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तपोवन

इसी बीच मैंने महसूस की बहुत प्यारी सी जानी-पहचानी खुशबू। अरे ये किसी के परफ्यूम की नहीं ये तो अगरबत्ती की खुशबू है। वही खुशबू जो सिर्फ घर में ही मिलती।तुम्हें पता है कि मैं थोड़ी हैरान तो हूं कि यहाँ कैसे और कहां से? लेकिन खुशबू का स्रोत ढूढ़ने के बजाय खुश हूं कि ये सोने पर सुहागा जैसी है। ठंडी हवा में कपकपाती हुई सिर्फ इस खुशबू के लिए खड़ी हूँ। तभी अचानक तुम्हारी कही बातें याद आईं। तुम्हें याद है शायद नहीं! तुम हमेशा हैरानी जताते थे कि तुम बेवजह क्यों मुस्कुराती हो? तुम्हारी जिंदगी में मुश्किल क्यों नहीं है? तुम हर स्थिति में इतनी शांत कैसे रह लेती हूं? तुम हर चीज को इतने अच्छे से मैनेज कैसे कर लेती हो? और मैं फिर से मुस्कुरा देती थी। 

तुम्हारी तब कही बातों पर मैंने अभी गौर किया कि हाँ मैं बेवजह मुस्कुरा लेती हूं, मैं हर स्थिति में शांत रहती हूं,  हर स्थिति को कूल तरीके से मैनेज कर लेती हूं क्योंकि मेरी जरूरतें बहुत छोटी हैं। मैं बहुत छोटी-छोटी चीजों में खुश हो जाती हूँ, बहुत कम पैसे में मेरा गुजारा हो जाता है। बहुत कम प्यार में भी जिंदगी गुलजार रहती है। सच कहूं तो बस इतना कि हर बीती रात के बाद सुबह जागने पर मैं खुश हो जाती हूं। बस एक और दिन जिंदा रह कर मैं बहुत खुश हो जाती हूँ। जबकि तुम्हारी जरूरतें ही ख्वाहिशों से बड़ी हैं, तो अब तुम्हीं बताओ कि तुम मेरी तरह सुकून से कैसे जी लोगे..?

-दीप्ति मिश्रा

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