“Traveling: It leaves you speechless, then turns you into a storyteller.”
सचिन की इस किताब को पढ़ते वक़्त मुझे यह उद्धरण याद आया। सचिन यात्राएँ करते-करते एक कहानीकार हो गए जो अपनी यात्राओं की कहानी इस किताब के जरिये हम सबके सामने रखते हैं।
मैं भी पहले ट्रेवल ब्लॉगिंग किया करता था लेकिन धीरे-धीरे व्यंग्य और राजनीतिक विषयों पर लिखने में रमता गया तो यात्राओं पर लिखना छूटता गया जबकि मैं यात्राएँ अब भी बहुत करता हूँ। यही वजह थी कि जब सचिन ने मुझे इस किताब की भूमिका लिखने को कहा तो मुझे थोड़ी हिचक थी जिसे मैंने सचिन से ज़ाहिर भी किया लेकिन सचिन के ज़ोर देने पर मुझे लोभ हुआ कि यह मेरे लिए एक ख़ूबसूरत मौक़ा होगा जब मैं यात्रा से जुड़े लेखन को दुबारा से पढ़ूँगा और उन यात्राओं को जी पाऊँगा जिनके बारे में सचिन ने इस किताब में बताया है।
यात्राओं को फ़िल्मों में हमेशा काफी रोमांटिसाइज़ किया गया है। कभी हमें यात्रा में शाहरुख़ खान को काजोल से मिलता दिखाया जाता है तो कभी हृतिक रोशन, फरहान अख्तर और अभय देओल की यात्राएँ दिखती हैं या फ़िर कंगना अकेली लंदन घूमती दिखाई पड़ती हैं। इसका प्रभाव यह होता है कि हम जब यात्रा का चित्रण फिल्मों में देखते हैं तो मस्तिष्क में यात्रा की अलग छवि बनने लगती है। हम यात्राओं के बारे में दो ही तरह से सोचते हैं- दोस्तों के साथ चलते हैं या बैग बाँधकर सोलो ट्रिप कर आते हैं। यदि मैं एक आम भारतीय नागरिक की नज़र से देखूँ तो एक आम आदमी अपनी यात्राओं की कल्पना तो सोलो ट्रिप या दोस्तों के साथ करता है लेकिन वास्तविकता में वह अपनी अधिकांश यात्राएँ अपने परिवार के साथ ही करता है। अगर ग्रुप भी बना तो दोस्तों के परिवार के साथ बन जाता है।
यह एक बड़ी वजह है कि यात्राओं के बारे में पढ़ा जाना चाहिए क्योंकि लेखक यात्राओं को वास्तविकता के नज़रिये से दिखाता है। हालाँकि यात्रा लेखन भी जब पढ़ता हूँ तो वह भी अधिकांशतः या तो सोलो ट्रेवलर द्वारा लिखे होते हैं या किसी ग्रुप में गए व्यक्ति द्वारा जहाँ यात्रा संस्मरण में कुछ दार्शनिकता का पुट रहता है। मैंने हिंदी में ऐसी किताबों का ज़िक्र नहीं सुना जहाँ पारिवारिक यात्राओं को ध्यान में रखकर एक आम भारतीय की वास्तविक स्थिति और सोच के हिसाब से लिखा गया हो। यहाँ पर मेरे सामने सचिन की किताब ‘ल्हासा नहीं… लवासा’ आती है जो कि उस कमी को पूरा करती है।
इस किताब में मुझे स्थानों का चयन बहुत ही सुंदर लगा जहाँ पर कुछ जगहें ऐसी हैं जिन्हें लोग काफ़ी जानते हैं जैसे मसूरी और जयपुर तो वहीं लवासा, जमटा और कोटद्वार जैसी तुलनात्मक रूप से कम देखी हुई जगहें हैं। सचिन ने उन सब जगहों को चुना है जहाँ उन्होंने अपने परिवार या अपने दोस्तों के परिवार के साथ यात्रा की है। उन्होंने अपने लेखन में इसी बात का ध्यान दिया है कि परिवार के साथ यात्रा करने वाले लोग इस किताब से लाभान्वित हों।
इस किताब में जमटा मुझे एक ऐसे स्थान के रूप में दिखा जहाँ अन्य हिल स्टेशन की तरह भीड़-भाड़ और आपाधापी नहीं है। यह प्रदूषण और भीड़ से दूर शांतचित्त से परिवार के साथ कुछ ख़ूबसूरत पल बिताने की जगह है तो वहीं लवासा जिसका नाम प्रायः राजनीतिक कारणों से ही सुना गया, सचिन उस लवासा के अल्ट्रा मॉडर्न रूप को सामने लाते हैं। दुनिया के जिन प्रसिद्ध महानगरों के नाम हम सुनते हैं उनसे टक्कर लेता यह नया बसाया शहर घूमने वालों को प्रकृति के मनोरम दृश्यों के साथ विकास और भौतिक सुविधाओं का एक नया ही रूप दिखाता है जिसकी कल्पना हम अपने देश में नहीं कर पाते।
सचिन के लेखन का कमाल है कि मसूरी की यात्रा के दौरान जब सचिन मशहूर लेखक रस्किन बांड से तमाम प्रयासों के बावजूद नहीं मिल पाते तो एक पाठक के रूप में मुझे भी दुख होता है। वहीं दूसरी ओर उन्होंने मसूरी के पर्यटन मानचित्र में लंढौर क़स्बे के महत्त्व को भी रेखाँकित किया है। इसी किताब में जयपुर की यात्रा के बारे में पढना मेरे लिए रोचक था क्योंकि सचिन ने हवामहल या क़िलों की बात करने की जगह परकोटे के बाहर के जयपुर को दर्शाया है। जयपुर में हर नई गाड़ी सबसे पहले मोती डूंगरी गणेश मंदिर जाती है लेकिन जयपुर का होने के बावजूद मैं उस मंदिर की स्थापना का क़िस्सा नहीं जानता था। यही यात्रा की ख़ूबसूरती होती है कि आप सिर्फ़ जगह को नहीं देखते बल्कि उसके इतिहास को समझते हैं और उस इतिहास के वर्तमान पर प्रभाव को अपने सामने महसूस कर रहे होते हैं।
सचिन सिर्फ़ घूमने की जगहों के बारे में इस किताब में नहीं बताते हैं बल्कि अपने वृत्तांत को इस तरह से पेश करते हैं कि लगता है यात्रा सिर्फ़ छुट्टी मनाने के लिए नहीं बल्कि प्रकृति को महसूस करने, देश-दुनिया को समझने व अपने परिवार के बीच के स्नेह के बंधन को और मज़बूत करने के लिए, उन्हें और बेहतर जानने के लिए एक महत्त्वपूर्ण जरिया है।
यह किताब पढ़ते हुए मुझे इसलिए भी ख़ुशी हुई क्योंकि सचिन भी मेरी ही तरह एक स्थापित लेखन वाली पृष्ठभूमि से नहीं आते। मैं मार्केटिंग प्रोफ़ेशनल हूँ और सचिन ह्यूमन रिसोर्स प्रोफ़ेशनल हैं और इस तरह भिन्न किस्म की पृष्ठभूमि से आए लोग अब लेखन में जगह बना रहे हैं और काफ़ी कुछ नया लिख रहे हैं। सचिन yatravrit.com नाम से ट्रेवल ब्लॉग लिखते रहे हैं और अब उनकी यह किताब पाठकों के पढ़ने के लिए उपलब्ध है। मैं सचिन को और हिन्द युग्म प्रकाशन को ‘ल्हासा नहीं… लवासा’ किताब के प्रकाशन के लिए बहुत शुभकामनाएँ देता हूँ और उम्मीद करता हूँ कि यह किताब नई ऊँचाइयों को छुए।
चलते-चलते सभी यात्रा के शौकीन लोगों से कहना चाहूँगा कि हर यात्रा हमेशा सुंदर नहीं होती, हर यात्रा हमेशा सुखदायी नहीं होती, हमेशा आरामदायक नहीं होती, लेकिन हर यात्रा आपको बदलती है। हर यात्रा हमारे दिल, दिमाग़, अवचेतन मन और जीवन पर कुछ असर छोड़ जाती है और यह असर जीवन को अच्छे के लिए धीरे-धीरे बदलता है। इसलिए यात्रा करते रहें, चाहे अकेले करें, दोस्तों के साथ करें या परिवार के साथ करें लेकिन यात्रा ज़रूर करें। कहीं एक उद्धरण पढ़ा था- ‘It is better to travel well than to arrive.’
– नवीन चौधरी